ग़ज़ल GAZAL

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    मैं जो कहता हूँ उसे निभाता हूँ
    मेरे मन में जो है उसे सुनाता हूँ

    कविता भले ही हो कल्पना मेरी
    फिर भी मैं सच के करीब जाता हूँ

    चाहे लोग कुछ भी समझें मुझको
    पर मैं कहने में न हिचकिचाता हूँ

    देखता हूँ जब भी कुदरत की रचना को
    न जाने क्यों  मन ही मन मुस्कराता हूँ

    सबको समझ लिया है अब अपना मैंने
    तब ही तो हर किसी का गम बंटाता हूँ

    कमैंट्स