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ज्ञानी सब संसार है, अज्ञानी 'प्रसाद' |
जो कुछ नहि है जानता , जिसको कुछ नहि याद||
सभी को होना चाहिए , ऐसा सच्चा ज्ञान |
अतिथि मात पिता अरू गुरु, सभी देवता समान ||
काम क्रोध मद लोभ मोह , इनसे रह होशियार |
जो तू चाहे जगत मे , अपना कुछ उद्धार ||
दीमक से भी लीजिए,थोड़ा सा कुछ ज्ञान |
लगकर जो तुम काम करो , हो जाय काम महान ||
ज्ञानवान मानव की है, कुछ ऐसी पहचान |
झुक जाता है वह ज्ञान से, फलदार वृक्ष समान||
झूठे हैं बन्धन सभी, कहते ज्ञानी लोग |
अन्तर में इनके छिपे, कहे जा सकें भोग||
अज्ञानी मत कर कभी, देह का अभिमान |
इसको तू सदा ही, मिट्टी का ढेला जान ||
ज्ञानी तो बस एक है, जिसे जगत का ज्ञान |
अज्ञानी वे सकल हैं, जो करे सत्य से पलान ||
मद में मस्त शरीर के, इतना नहिं तू डोल |
पता नहिं कब उतर जाये, यही ढोल की पोल ||
मिथ्या जग को क्यों रहा, सच्चा तू रे मान |
इसे तो ऐसे देखिये, झूठा सपना जान ||
बिन ठोकर आवै अकल, सो तौ सम्भव नाय |
जैसे बिन गोता लगे, तैरना सीख न पाया ||
रे अज्ञानी जगत में, अपना कोई नाय |
अपना अपना करे तू, क्यों रहा भरमाय ||
क्या तू लाया साथ में, और क्या ले जाय |
अपना अपना क्या करे, यही समझ नहिं आय||
जो तू चाहे निज भला, ईश्वर को न भुलाय |
इस माया जंजाल में, तेरी खैर है नाय||