अनुकूलन और हम # ANUKOOLAN AUR HAM # BLOG

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     मैं कोई विद्वान या भाषाविद नहीं हूँ जो मैं आपको अनुकूलन शब्द की व्युत्पत्ति के बारे में समझाऊँ कि यह शब्द किन किन शब्दों से मिलकर बना है और यह विशेषता किस अर्थ में प्रयोग किया जाता है। मैं तो  केवल इतना जानता हूँ कि जब कोई परिस्थितियों के अनुसार अपने आप को  बना या ढाल लेता है तो यह कहा जायेगा कि उसने अनुकूलन कर लिया है। 
                अनुकूलन की प्रक्रिया एक जटिल प्रक्रिया होती है इसमें जीव को बहुत संघर्ष करना पड़ता है। इसमें जीवों को प्रतिकूल परिस्थितियों के साथ संघर्ष करना पड़ता है। इस समयावधि में जो जीव परिस्थितियों के साथ संघर्ष करके अनुकूलन नहीं कर पाते हैं  उनका जीवन बहुत ही कष्टदायी होता है या फिर वे नष्ट ही हो जाते हैं। कुछ जीवों में अनुकूलन काफी लम्बी समयावधि में हो पाता है ऐसे में उनका रंग रूप और आकार भी  बदल जाता है। 
              वृक्षों को आपने देखा होगा। कुछ वृक्ष सदा हरे भरे रहते हैं जबकि कुछ वृक्ष पतझड़ ले लेते हैं। जो वृक्ष जलवायु के साथ अनुकूलन कर लेते हैं वे सदा हरे भरे बने रहते हैं और जो वृक्ष जलवायु के साथ अनुकूलन नहीं कर पाते हैं उनकी पत्तियाँ झड़ जाती हैं। अनेक छोटे पौधे जलवायु के साथ अनुकूलन नहीं कर पाते हैं इस कारण सूख भी जाते हैं। 
               अगर आपने कभी ध्यान दिया हो तो यह जरूर देखा होगा कि नेता लोग जिस क्षेत्र या देश में जाते हैं तो अक्सर वहाँ की बोली भाषा और वेषभूषा को अपना लेते हैं। वहाँ के लोगों को अपना बनाने और उनके साथ घुलने मिलने का यह एक अच्छा उपाय है। जो नेता समय और परिस्थितियों के अनुसार अपना रूप और अपने विचार बदल लेते हैं वे अपने लक्ष्य में सफल हो जाते हैं और अच्छे नेता कहलाते हैं। 
              समय और परिस्थितियां सदा बदलती रहती हैं। जलवायु में में भी परिवर्तन होता रहता है। मनुष्य परिस्थितियों का स्वामी और दास दोनों है। विज्ञान के इस युग में मनुष्य ने परिस्थितियों को  अपने अनुकूल बनाने का प्रयास किया है और इसमें उसे काफी हद तक सफलता भी मिली है। जिन परिस्थितियों को वो अपने अनुकूल नहीं बना पाया है वहाँ उसे परिस्थितियों के साथ अनुकूलन करना पड़ता है। 
              समाज में अनुकूल और प्रतिकूल दोनों ही प्रकार के विचार और परिस्थितियां देखने को मिलती हैं। जो विचार और परिस्थितियां हमारे अनुकूल होते हैं उन्हें हम सहजता से ग्रहण कर लेते हैं क्योंकि वे हमारे लिए सुखदायी होते हैं इसके विपरीत जो विचार और परिस्थितियां हमारे प्रतिकूल होते हैं वे हमारे लिए कष्टदायी होते हैं। इनके लिए दो विकल्प हैं--पहला यह है कि हम इन्हें अपने अनुकूल बना लें और दूसरा यह--हम उनके अनुकूल हो जायें अर्थात उनसे अनुकूलन कर लें ताकि हमारा जीवन सुखदायक हो सके। 
              मेरे विचार से अनुकूलन की सामाजिक जीवन में भी आवश्यकता पड़ती है क्योंकि समाज में भी अड़ियल स्वभाव के लोगों की कमी नहीं है। ये लोग  धनवान या रूढ़िवादी होते हैं या फिर अज्ञानी और जिद्दी स्वभाव वाले होते हैं। ये अपनी बात मनवाने में अपना बड़प्पन समझते हैं। ऐसा जानते हुए भी कि इनकी बात सही नहीं है फिर भी व्यर्थ का विवाद न बढ़े इससे बचने के लिए थोड़ी देर के लिए इन्हीं की बात को सही मान लिया जाए तो मेरे विचार से कोई बुराई नहीं है। 
               परिवार और समाज में प्रेम और सौहार्द बना रहे इसके लिए भाईचारा, आपसी तालमेल और सामन्जस्य बनाये रखना बहुत जरूरी है। यह सब एक दूसरे के अनुकूल होने पर ही सम्भव हो सकता है। 
                                     




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