हम सभी अपने जीवन को सुखमय बनाना चाहते हैं। जीवन को सुखी बनाने के लिए हम सभी प्रयासरत रहते हैं। यदि किसी से बात करें तो वो अपने जीवन से जुड़ी अनेक समस्याएं गिना देगा जिनसे वो दुखी है। कोई गरीबी से दुखी है तो कोई अमीरी से। आप सोचते होंगे अजीब बात है अमीरी में तो आनन्द ही आनन्द है। अमीर लोगों को कोई दुख नहीं होता है। वास्तव में ऐसा नहीं है। उनका दुख दूसरे प्रकार का दुख होता है। उन्हें सदा अपने कारोबार की चिंता सताती रहती है कि कहीं कोई घाटा हो जाय।
आज के इस भौतिकवादी युग ने मनुष्य के जीवन से उसका सुख हर लिया है। आज का आदमी अधिक से अधिक वस्तुओं का उपयोग करके अपने जीवन को सुखी बनाने का प्रयास कर रहा है। अपने पड़ोसी के पास ऐसी वस्तु देखकर जो उसके पास नहीं है बहुत दुखी होता है जब कि उसको कोई दुख नही ंं है।
सुख-दुख का सम्बन्ध मनुष्य के विचार और उसकी मानसिकता से है। सकरात्मक सोच वाला व्यक्ति सुखी रहता है । नकरात्मक सोच वाले व्यक्ति को हर चीज में कमी दिखाई देती है और वो दुखी रहता है। कुछ लोगों की ऐसी सोच होती कि उनके दिमाग में अनेक ऐसे अनावश्यक विचार होते हैं जिनके कारण वो अकारण ही दुखी रहते हैं।उन्हें चाहिए ऐसे विचार अपने दिमाग में न रखें । कबीरदास जी ने भी ऐसा ही कहा है--सार सार को गहि रहे थोथा देय उडा़य।
मनुष्य को चाहिए कि वो अपने जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में यथासंभव संतुलन की स्थिति बनाये रखने का प्रयास करे। किसी चीज की न्यूनता और अधिकता दोनों ही दुखदायी होती हैं। संतुलन की स्थिति में मनुष्य को सुख की अनुभूति होती है।
संतुलन की स्थिति एक ऐसी स्थिति होती है जिसपर किसी भी मनुष्य को अधिकतम सुख प्राप्त होता है। यह एक काल्पनिक और आदर्श स्थिति है। इसकी खास बात यह है कि समय और परस्थितियों के अनुसार इसमें सदा परिवर्तन होता रहता है। इसी कारण किसी भी मनुष्य का सुख-दुख सदा नहीं रहता है